बिहारी लाल हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कवि माने जाते हैं। अपनी काव्य रचनाओं की गहराई और सौंदर्य के कारण वे संपूर्ण हिंदी जगत में विख्यात हैं। उनके दोहों की विशेषता यह है कि वे देखने में छोटे लगते हैं, किंतु उनके भीतर गूढ़ और ह्रदयस्पर्शी संदेश छिपे होते हैं। इसीलिए उनके बारे में कहा गया है –
“सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटन लगे, घाव करें गंभीर।”
बिहारी के दोहों में विशेष रूप से श्रंगारिकता की उपमाओं का प्रयोग मिलता है, जो उनकी रचनाओं को जीवंत और प्रभावशाली बनाते हैं। उन्होंने राधा-कृष्ण के श्रद्धा और प्रेम को अपनी काव्य कला से जनमानस तक पहुँचाया, जिस कारण आज भी उनके दोहे अत्यंत लोकप्रिय हैं।
बिहारी लाल की रचनाएँ आज भी पाठकों के हृदय को छूती हैं। उनके दोहों में जो भावनात्मक गहराई और कलात्मक सौंदर्य है, वह उन्हें हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर बनाता है।
बिहारी लाल के प्रसिद्ध दोहें :
1.
सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात ।
मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात॥
अर्थ : इस दोहे में बिहारी जी ने भगवान कृष्ण के साँवले रंग और उनके पीले वस्त्र की सुंदरता का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है। कवि कहते हैं कि कृष्ण का श्यामवर्ण शरीर जब पीतांबर धारण करता है, तो वह दृश्य ऐसा प्रतीत होता है जैसे नीले पर्वत पर प्रातःकाल की सूर्य किरणें चमक रही हों।
2.
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ॥.
अर्थ : इस दोहे में कवि ने गोपियों द्वारा कृष्ण की बाँसुरी चुराने की लीलामयी घटना का वर्णन किया है। गोपियाँ जानबूझकर कृष्ण की मुरली छुपा लेती हैं ताकि उन्हें कृष्ण से मिलने और बात करने का बहाना मिल जाए । जब कृष्ण मुरली माँगते हैं, तो गोपियाँ आँखों की भौंहों से झूठी कसमें खाती हैं, मुस्कुराती हैं, और ‘देने’ की बात कहकर फिर चंचलता से मुकर जाती हैं। इस प्रकार वे कृष्ण के साथ प्रेमभरी छेड़छाड़ करती हैं।
3.
कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ।।
अर्थ : इस दोहे में कवि ने ग्रीष्म ऋतु की भीषण गर्मी का प्रभाव दर्शाया है। तपती दोपहरी के कारण जंगल के सभी जीव-जंतु एक जगह पर शांत होकर बैठे हैं। यहाँ तक कि स्वभाव से एक-दूसरे के शत्रु जैसे साँप और मोर, हिरण और बाघ भी एक साथ बैठे हैं। कवि को यह दृश्य ऐसा लगता है मानो पूरी सृष्टि तपोवन (तीर्थ या शांत वन) में बदल गई हो, जहाँ दीर्घकालिक ताप (निदाघ) ने सभी में समानता और एकता की भावना भर दी हो।
4.
जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥
अर्थ : बिहारी जी इस दोहे में यह संदेश देते हैं कि केवल बाहरी धार्मिक प्रतीकों — जैसे जपमाला फेरना, शरीर पर धार्मिक छापें लगाना या तिलक धारण करना — से कुछ भी नहीं होता, यदि मन सच्चा न हो। मन अगर काँच की तरह अस्थिर और भ्रमित है तो ऐसी भक्ति व्यर्थ है। प्रभु की सच्ची आराधना तो तभी फल देती है जब वह पूरी श्रद्धा और सच्चे मन से की जाए। दिखावे की पूजा नहीं, बल्कि हृदय से जुड़ी भक्ति ही भगवान को प्रिय है।
5.
बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥
अर्थ :इस दोहे में कवि ने जेठ महीने की प्रचंड गर्मी का प्रभावशाली चित्रण किया है। गर्मी इतनी तेज होती है कि मानो स्वयं छाया भी किसी और छाँव की तलाश में भटक रही हो। ऐसे मौसम में बाहर कहीं भी छाया दिखाई नहीं देती — वह या तो किसी घने जंगल की शरण में होती है या फिर किसी घर के भीतर जाकर छिप जाती है।
6.
प्रगट भए द्विजराज कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ॥
अर्थ : कवि का भाव है कि भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज में चंद्रवंश में स्वयं अवतार लिया था। बिहारी के पिता का नाम केसवराय था, इसलिए कवि श्रद्धा भाव से कृष्ण से कहते हैं — हे प्रभु! आप तो मेरे लिए पिता समान हैं, कृपया मेरे सभी दुखों और कष्टों को दूर करें।
7.
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥
अर्थ : इस दोहे में कवि ने उस नायिका की भावनात्मक स्थिति का सुंदर चित्रण किया है जो अपने प्रिय को संदेश भेजना चाहती है। उसके मन में कहने के लिए बहुत कुछ है, इतना अधिक कि वह सब एक छोटे से पत्र में नहीं समा सकता। लेकिन जब वह संदेशवाहक के सामने होती है, तो संकोचवश वह खुलकर कुछ कह नहीं पाती। इसलिए वह संदेशवाहक से कहती है — “तुम मेरे अत्यंत निकट हो, मेरे मन की बात तुम भली-भाँति समझते हो। इसलिए जो मैं न कह सकी, वह तुम अपने दिल से मेरे दिल की बात कह देना।”
8.
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल ।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल ।।
अर्थ :इस दोहे में कवि बिहारी ने राजा जयसिंह को एक प्रतीकात्मक संदेश दिया है। वे कहते हैं कि इस समय न तो फूलों में पराग है, और न ही उनमें मधुर रस (मधु) है। ऐसे में यदि भौंरा अब भी फूल की कली में डूबा रहेगा, तो आगे चलकर क्या होगा, यह कहना मुश्किल है। यह दोहा उस समय कहा गया जब राजा जयसिंह विवाह के बाद रास-रंग में डूब गए थे और राज्य के कार्यों से ध्यान भटका बैठे थे। बिहारी जी ने यह दोहा सुनाकर उन्हें सच्चाई का बोध कराया, जिससे राजा ने फिर से राज्य की जिम्मेदारियों की ओर ध्यान देना शुरू किया।
9.
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात॥
अर्थ :बिहारी इस दोहे में प्रेमी युगल की आँखों से होने वाली बातचीत को बेहद भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हैं। वे बताते हैं कि प्रेमी-प्रेमिका लोगों से भरे स्थान पर होते हुए भी नज़र के इशारों से ही सब कुछ कह लेते हैं — कभी प्यार जताते हैं, कभी नखरे करते हैं, कभी रूठते हैं, फिर मान जाते हैं और अंत में शरमा भी जाते हैं। यह संपूर्ण संवाद आँखों की भाषा में ही सम्पन्न होता है, बिना किसी शब्द के।
10.
पत्रा ही तिथि पाइये,वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास।।
अर्थ : नायिका के घर के चारों ओर इतनी मधुर और प्रकाशमय छटा फैली रहती है कि तिथि का अंदाजा केवल पंचांग देखकर ही लगाया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि नायिका का मुख पूर्णिमा के चाँद की तरह उज्ज्वल और सुंदर है, इसलिए उसके घर के आस-पास हमेशा पूर्णिमा जैसी चमक बनी रहती है। इस कारण वहाँ तिथि का सही ज्ञान पाना मुश्किल हो जाता है, और जो भी तिथि जानना चाहता है, उसे पंचांग की सहायता लेनी पड़ती है।
11.
मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल ।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।
अर्थ : इस दोहे में बिहारीलाल जी श्रीकृष्ण के उस मनोहर स्वरूप का वर्णन करते हैं जो उनके हृदय में सदा के लिए बसा हुआ है। वे कहते हैं — हे बिहारीलाल! तुम्हारे सिर पर मोरपंख का मुकुट हो, कमर में काछनी (पीताम्बर), हाथ में बांसुरी और गले में माला हो। तुम्हारा यही मनोहर रूप मेरे मन में सदा वास करे।
12.
कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय।।
अर्थ : कवि कहते हैं कि सोना (धन) में धतूरे से भी सौ गुना ज़्यादा नशा होता है। धतूरा खाने से आदमी पागल हो जाता है, लेकिन सोना (धन) तो इतना प्रभावशाली होता है कि उसे केवल पा लेने मात्र से ही व्यक्ति अहंकारी और मदांध हो जाता है। इस दोहे के माध्यम से कवि ने लोभ और अहंकार की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य किया है।
13.
स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।
अर्थ : हिंदू राजा जयशाह, शाहजहाँ के आदेश पर अन्य हिन्दू राजाओं के विरुद्ध युद्ध किया करते थे। यह बात बिहारी जी को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने उस पक्षी-बाज से कहा — हे बाज! किसी और के अहंकार को शांत करने के लिए तुम अपने ही पक्षियों, यानी हिंदू राजाओं को क्यों मारते हो? इस पर विचार करो, क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ पूरा होता है और न यह कोई पुण्य का काम है। तुम केवल अपना मेहनत और श्रम व्यर्थ कर रहे हो।
14.
अंग-अंग नग जगमगत दीप-सिखा सी देह।
दिया बढाऐं हूँ रहै बड़ौ उज्यारौ गेह॥
अर्थ : दूती नायक से कहती है कि नायिका की देह आभूषणों से सजी हुई है, जिनसे वह दीप की लौ जैसी चमक बिखेर रही है। यहाँ तक कि यदि घर में दीपक बुझा भी दिया जाए, तब भी नायिका के रूप की प्रभावशाली कांति से चारों ओर प्रकाश फैला रहता है। दूती ने नायिका के सुंदर रंग-रूप के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व में उज्ज्वलता, दीप्ति और आकर्षण की भी विशेषता को बड़े सुंदर तरीके से व्यक्त किया है।
15.
या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोई।
ज्यौं ज्यौं बूड़ै स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होई॥
अर्थ : इस प्रेमी मन की गति को कोई भली-भाँति नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है, वैसे-वैसे और अधिक उज्ज्वल और निर्मल होता चला जाता है। अर्थात्, कृष्ण के प्रेम में डूबने के बाद व्यक्ति की आत्मा और भी शुद्ध हो जाती है।
16.
कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ।।
अर्थ : हे प्रभु! मैं न जाने कब से दीन होकर आपको पुकार रहा हूँ, आपकी भक्ति कर रहा हूँ, लेकिन फिर भी आप मेरी सहायता नहीं करते। हे जगत के गुरु, हे संसार के स्वामी! ऐसा प्रतीत होता है कि अब आप को भी संसार की हवा लग गयी है— जैसे बाकी लोग स्वार्थी हो गए हैं, वैसे ही आप भी संसार जैसे व्यवहार करने लगे हैं।
17.
मैं समुझयौ निरधार,यह जगु काँचो कांच सौ।
एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ।।
अर्थ : मैंने इस संसार को प्रारंभ में काँच की तरह नश्वर और अस्थिर समझा था। लेकिन जब सृष्टि के विविध रूपों को गहराई से देखा, तो यह अनुभव हुआ कि इनमें एक ही परम तत्व, एक ही ईश्वर के अनेक रूप प्रतिबिंबित हैं। ब्रह्मज्ञानी और अद्वैतवादी दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह सारा जगत उसी एक ईश्वर की अनंत अभिव्यक्तियाँ हैं — हर रूप में, हर वस्तु में वही एक सत्ता व्याप्त है।
18.
कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।
अर्थ : जिस प्रकार पानी में नमक घुल जाने के बाद उसे अलग करना असंभव हो जाता है, ठीक उसी तरह श्रीकृष्ण का प्रेम और रूप मेरे मन में पूरी तरह समा चुका है। अब चाहे कोई लाख प्रयास कर ले, उस प्रेम को मेरे हृदय से निकाल पाना नामुमकिन है।
19.
जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।
कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात।।
अर्थ : नायिका अपनी विवशता व्यक्त करते हुए कहती है कि मेरे नेत्र न तो यश की परवाह करते हैं और न ही अपयश की—वे तो बस साँवले-सलोने श्रीकृष्ण को ही निहारते रहते हैं। मैं असहाय हो जाती हूँ, समझ नहीं आता क्या करूँ, क्योंकि मेरे चंचल नयन श्रीकृष्ण के दर्शनों के लालच में बार-बार उनकी ओर खिंच चले जाते हैं।
20.
कहा कहौं वाकी दसा, हरि प्राननु के ईस।
बिरह-ज्वाल जरिबो लखैं, मरिबौ भई असीस॥
अर्थ : नायिका की सखी कहती है — हे हरि! जो नायिका तुम्हें अपने प्राणों का स्वामी मानती है, उसकी दशा मैं कैसे कहूँ? वह तुम्हारे विरह की आग में इस तरह जल रही है कि अब उसे मर जाना ही आशीर्वाद जैसा लगने लगा है।
भावार्थ:
यह दोहा विरह में जलती हुई नायिका की वेदना को दर्शाता है। जब प्रियतम (श्रीकृष्ण) दूर हों और उनके बिना जीवन असह्य हो जाए, तब सखी नायक से कहती है कि उसकी विरह-व्यथा इतनी तीव्र है कि उसे मृत्यु भी राहत जैसी लगने लगी है। यह प्रेम की चरम अवस्था और विरह की गहन पीड़ा का मार्मिक चित्रण है।
21.
तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान।।
अर्थ : कवि बिहारी कहते हैं कि राधा को ऐसा लग रहा है कि श्रीकृष्ण किसी दूसरी स्त्री के प्रेम में बंध गए हैं। तब राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है — हे राधिके! तुम यह भली-भाँति समझ लो कि कृष्ण तुम्हारे लिए उर्वशी जैसी अप्सरा को भी त्याग सकते हैं। क्योंकि तुम उनके हृदय में उसी तरह बसी हुई हो जैसे कोई प्रिय और अमूल्य आभूषण। इस प्रकार यह दोहा राधा की अपार प्रियता और श्रीकृष्ण, राधा के प्रति उनके विशेष स्थान की प्रशंसा करता है।
22.
कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।
मो संपति जदुपति सदा, विपत्ति-बिदारनहार।।
अर्थ : भक्त श्रीकृष्ण से कहते हैं कि चाहे कोई करोड़ों, लाखों या हज़ारों की संपत्ति क्यों न जुटा ले, मेरे लिए इन सबका कोई महत्व नहीं है। मेरे लिए तो वास्तविक धन केवल यादवेन्द्र श्रीकृष्ण ही हैं, जो हर समय मेरी कठिनाइयों और विपत्तियों को दूर करते हैं। वही मेरी सबसे बड़ी संपत्ति हैं।
23.
घरु-घरु डोलत दीन ह्वै, जनु-जनु जाचतु जाइ।
दियें लोभ-चसमा चखनु, लघु पुनि बड़ौ लखाई।।
अर्थ : भिखारी अत्यंत गरीब बनकर घर-घर घूमता है और हर किसी से कुछ न कुछ माँगता रहता है। उसकी आँखों पर लोभ की परत इस कदर चढ़ी होती है कि वह छोटे से छोटे व्यक्ति को भी बड़ा समझने लगता है। क्योंकि जब किसी से याचना करनी हो, तो उसे बड़ा मानकर ही कुछ माँगा जा सकता है। इसीलिए वह हर किसी को दानी कहकर उसकी प्रशंसा करता है, चाहे वह योग्य हो या नहीं।
24.
बड़े न हूजै गुननु बिनु, बिरद-बड़ाई पाइ।
कहत धतूरे सौं कनक, गहनौ गढ्यौ न जाइ॥
अर्थ :सिर्फ नाम या उपाधि से कोई व्यक्ति महान नहीं बनता, जब तक उसमें सच्चे गुण न हों। उदाहरण के लिए, धतूरे को ‘कनक’ कहा जाता है, लेकिन उससे आभूषण नहीं बनाए जा सकते। आभूषण तो असली सोने से ही बनते हैं, नाम के सोने से नहीं। इसी प्रकार, केवल नाम या दिखावे से किसी की प्रशंसा नहीं होती, असली प्रतिष्ठा तो गुणों के आधार पर स्वतः प्राप्त होती है, अर्जित नहीं की जाती।
25.
मेरी भाव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जां तन की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।
अर्थ : कवि बिहारी अपने ग्रंथ के सफल समापन हेतु राधा जी की वंदना करते हुए कहते हैं कि मेरी जीवन की सभी बाधाओं को वही चतुर राधा दूर करेंगी, जिनकी केवल छाया पड़ते ही साँवले श्रीकृष्ण हरे रंग के प्रकाश से आलोकित हो उठते हैं। अर्थात, मेरे समस्त दुखों का निवारण वही राधा करेंगी, जिनकी छवि मात्र से श्रीकृष्ण हरे अर्थात आनंदित हो जाते हैं।