आज का कल्पतरु नीम

मानव सदा से ही वनस्पतियों पर आश्रित रहा है। आज यदि वनस्पतियां न होती तो हमारा अस्तित्व ही न होता। भोजन, वस्त्र, काष्ठ और औषधियों के लिए हम वनस्पतियों के ऋणी हैं। इस संदर्भ में कुछ पेड़ों ने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। इन पेड़ों को कल्पतरु या कल्पवृक्ष कहा जाने लगा है। कल्पतरु उस वृक्ष विशेष को कहते हैं, जो मुंहमांगी मुराद पूरी करने में सक्षम हो या अन्य शब्दों में कहें तो ऐसा वृक्ष कल्पतरु होता है, जिसमें कई गुण एक साथ हों। ऐसा ही एक सर्वगुण संपन्न वृक्ष ‘है ‘नीम’, जिसे कल्पतरु की संज्ञा दी गई है। यद्यपि नीम मूलतः भारतीय है, लेकिन आज यह दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। नीम की ख्याति सभी सीमाओं को लांघती फांदती संसार के हर कोने में पहुंच रही है और साथ में ‘भारतीय दर्शन के ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का संदेश फैला रही हैं।

‘यथा नाम तथा गुण’ का उदाहरण नीम से अच्छा और कोई नहीं हो सकता। नीम शब्द संस्कृत के नाम ‘निम्ब’ से व्युत्पन्न है। निम्ब शब्द का अर्थ है “निम्बति सिंचति स्वास्थ्य” अर्थात् स्वास्थ्य को सींचने वाला। हमारे पूर्वजों ने इस वृक्ष को निम्ब नाम बहुत सोच-समझकर ही दिया होगा। इसके अन्य संस्कृत नाम जैसे पिचुमर्द =कुष्ठनाशक, अरिष्ठ = अहानिकर तथा सर्वतोभद्रक = सर्वकल्याणकारी आदि ने इसको उच्चपदस्थ कर दिया है। ये बातें तो पुरानी हो सकती हैं किंतु, नीम अपने सर्वकल्याणकारी गुणों के कारण आज संसार का श्रेष्ठतम वृक्ष हो गया है।

‘नीम ‘मेलिएसी’ कुल का वृक्ष है एवं इसका वानस्पतिक नाम अज़ेडिरेक्टा इंडिका है। अंग्रेजी में इसे ‘मार्गोसा’, बंगाली में ‘नीमगाच’, मराठी में ‘लिम्बा’ व ‘निम्बे’, गुजराती में ‘तिम्बा’, कन्नड़ में ‘बेवू’, तमिल में ‘वेपा’ तथा तेलगू में ‘येपा’ या ‘वेम्पू’ कहते हैं। नीम 15 से 20 मीटर ऊंचा, सीधे तने वाला, अर्धछतनार, लगभग सदाबहारी, आरंभ में जल्दी किंतु बाद में धीरे-धीरे बढ़ने वाला वृक्ष है। यह 3 से 5 वर्षों में फूलने और फलने लगता है। नीम के एक पेड़ से औसतन 300 किलोग्राम पत्तियां मिलती हैं। 7 से 10 वर्ष पुराना पेड़ औसतन 50 किलोग्राम निम्बोली (फल) देता है। ठंडे स्थानों को छोड़कर। देश के शुष्क, अर्द्धशुष्क, नम, उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण भागों में नीम के पेड़ लहलहाते देखे जा सकते हैं। भारत में नीम के कुल उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत भाग उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में होता है।

भारत के गांवों में नीम के वृक्ष के प्रति लोगों की असीम श्रद्धा है। नीम के बीज के निष्कर्ष का उपयोग आयुर्वेदिक औषधियों के रूप में प्राचीन काल से होता आया है। नीम के वृक्ष को आयुर्वेद में “सर्व रोग निवारिणी” कहा गया है। इसकी छाल का काढ़ा बुखार, गठिया आदि में दिया जाता है। इसका तेल टिटनेस, कोढ़ की प्रारंभिक अवस्था, एक्ज़िमा, पित्ती, गलसुआ, अपच और खाज-खुजली, दाद आदि में काम आता है। नीम की पत्तियों का रस पीलिया और त्वचा संबंधी रोगों में इस्तेमाल किया जाता है। नीम की टहनियां दातुन के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं। नीम के पेड़ की छाल का रस कई ‘टूथपेस्टों’ में आवश्यक घटक के रूप में इस्तेमाल होता है। नीम के साबुन में नीम के बीजों से निकाला गया तेल इस्तेमाल किया जाता है। दक्षिण भारत के औद्योगिक क्षेत्रों में नीम के तेल की भारी मांग है। तेल निकालने के बाद बची खली की खाद के रूप में भी काफी मांग है क्योंकि इसमें जड़ों में लगने वाले कृमियों को मारने का अद्भुत गुण है ।

विशाल वितान तथा पत्तियों की सघनता के कारण नीम के वृक्ष में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बहुत अधिक होती है। कदाचित् ही यह पत्र विहीन होता है, इसलिए बारहों महीने छाया प्रदान करता है। अन्य वृक्षों की तुलना में अधिक प्राणवायु (ऑक्सीजन) देता है। अतः, यह अच्छे वायुशोधक के रूप में भी प्रतिष्ठित है। अर्थात् जहां नीम के पेड़ होंगे, वहां का पर्यावरण अपने आप स्वच्छ बना रहेगा।

वायु की गति को कम करने, संग में उड़ती धूल, धुआं और गैस आदि से संभावित क्षति को रोकने के लिए नीम का उपयोग वातरोधों के रूप में भी किया जाता है। शुष्क क्षेत्रों में, खासतौर से बलुई जमीन पर जहां बाल-क्षेपण और जलशोषण के कारण खेती करना कठिन होता है, नीम बहुत उपयोगी पाया गया है। सहारा मरुस्थल के विस्तार को रोकने के लिए नीम के वृक्षों की 250 से 300 किलोमीटर लंबी कतारें लगाई गई हैं।
तेल नीम का महत्वपूर्ण उत्पाद है। इसमें लिनोलिक समूह का ‘मार्गीस्टिक एसिड’ पाया जाता है। बीज से निकाले गए तेल में ओलिक एसिड, पॉमिटिक एसिड तथा स्टियरिक एसिड पाए जाते हैं। इसमें अल्प मात्रा में टेनिन भी पाया जाता है। फिलीपींस में नीम का तेल धान के हानिकारक कीट ‘ब्राउन प्लांट हापर के नियंत्रण में काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है।

अभी तक नीम से 150 यौगिकों का पृथक्कन किया गया है जिनमें पत्तियों का योगदान 37 और बीजों का 101 है तथा शेष 12 यौगिक पेड़ के अन्य भागों से प्राप्त होते हैं। इतने सारे यौगिक प्रदान करने वाला संभवतः कोई दूसरा पौधा या वृक्ष नहीं है। नीम के कड़वे तत्वों को 8 वर्गों में बांटा जा सकता है। ‘प्रोटोमीलियासिन’, ‘अशोधित पार्श्व श्रृंखलायुक्त लिमोनायड’, ‘अजाडिरोन’, ‘गेडुनीन’, ‘विलासीनीन’, ‘निम्बीन’, ‘सलान्नीन’, और ‘आजाडिरखतीन’। नीम के सक्रियतम् प्रतिपोषी यौगिक की खोज में आधुनिक तकनीक के सहारे अजाडिरख्तीन ए से एम तक विलगाना संभव हुआ है।

बीज और पत्तियों से प्राप्त कतिपय यौगिकों में 8 ही यौगिक अजाडिरखतीन ए और बी वेपऔल, आइसोवेपऔल, मीलियन्ट्राइऑल, सलान्निन, 7-एसिटिल-17 B हाइड्रॉक्सी अजाडिराडाइओन और निम्बीन प्रतिपोषी तथा वृद्धि नियंत्रक गुणों से युक्त पाए गए हैं। निम्बीन में पोटेटोवायरस-एक्स वैक्सीनिया वायरस और कुक्कुट चेचक विषाणु के विरुद्ध प्रतिविषाणुक गुण हैं। लगभग 250 किस्म के कीटों और पीड़कों के विरुद्ध नीम के व्युत्पन्न सक्रिय पाए गए हैं। नीम के व्युत्पन्न यौगिक सीधे मारने के बजाए कीटों की व्यावहारिक शरीरक्रिया को प्रभावित करते हैं। यह एक वांछनीय वस्तु है क्योंकि इसके उत्पाद जैव-अवकर्षनीय हैं और भूमि, जल और वायु को प्रदूषित नहीं करते। इसलिए पर्यावरण मित्र भी हैं। नीम की पत्तियों और बीजों में एक ऐसा संघटक होता है जो मूंगफली, मक्के और अनाजों में लगने वाले और एफ्लाटॉक्सिन उत्पन्न करने वाले फफूंद को जीवित तो रखता है, किंतु उसकी एफलाटॉक्सिन उत्पन्न करने की क्षमता को नष्ट कर देता है। नीम एक अति उत्तम एंटीसेप्टिक व रक्तशोधक भी है।

नई दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी’ में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि नीम के तिक्त तत्वों से एड्स का उपचार संभव है। यहीं पर नीम के बीजों के निस्सार से प्रनीम वैक्सीन विकसित की गई है जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए बहुत अच्छा गर्भ निरोधक सिद्ध हुआ है। नीम की गर्भ निरोधक उपयोगिता का आकलन अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठन ने भी किया है। हालैंड के वाजेनिन्जेन विश्वविद्यालय में अनुसंधान के आधार पर पाया गया है, कि नीम का तेल बहुत उपयुक्त गर्भ निरोधक है और इसके इस्तेमाल से शरीर पर कोई कुप्रभाव भी नहीं पड़ता है।

नीम की पत्तियां और बी-क्लोरोक्वीन संवेदनशील तथा क्लोरोक्वीन प्रतिरोधी मलेरिया परजीवी के प्रभेदों में सामान्य मलेरिया की दवाइयों से अधिक प्रभावी पाए गए हैं। कृषि क्षेत्र में उपयोग के लिए नीम के कई उत्पाद ‘रेपलिन आरडी 9’, ‘वेलेग्रो’,’निम्बोसॉल, ‘बायोसॉल’ और ‘मार्गोसान ओ’ नाम से बाज़ार में आ चुके हैं।

बाजारू नीम की खली भूमि की उर्वरता बढ़ाने के काम आती है। लेकिन औषधीय और कीटनाशी गुण युक्त पदार्थों तथा तेल को अलग करने के पश्चात् बची हुई खली में संतुलित अमीनो अम्ल युक्त प्रचुर प्रोटीन होती है। इस निरविषीकृत एवं निर्वसीकृत खली में कड़वापन बिल्कुल नहीं होता। इसको मुर्गियों के भोजन में 30 प्रतिशत के अनुपात में मिलाकर खिलाने पर बहुत अच्छे नतीजे मिले और मुर्गियों के स्वास्थ्य और अंडों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं दिखा।

वैज्ञानिकों के सतत् प्रयासों से नीम के कवकनाशी, जीवाणुरोधी विषाणुरोधी, मलेरियारोधी तथा मधुमेहरोधी गुणों का पता लगाया जा चुका है। इसकी पुष्टि शुक्राणुनाशी के रूप में भी की जा चुकी है। अन्न भंडारण तथा वस्त्रों को सुरक्षित रखने मैं इसकी पत्तियों का उपयोग भारत में प्राचीनकाल से होता आया है।

यद्यपि नीम के प्रति शोध का प्राथमिक उद्देश्य शीघ्र विच्छेदनशील, सुरक्षित तथा प्रभावी कीटनाशी विकसित करना रहा है। किंतु धीरे-धीरे नीम के – प्रति शोध का क्षेत्र इसकी औषधीय तथा कृषीय उपयोगिता तक विस्तृत हो रहा है। आधुनिक नीम विषयक शोध कार्य जर्मनी, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका तथा जापान जैसे देशों में किए जा रहे हैं। भारतीय – वैज्ञानिक भी इस ‘वंडर ट्री’ के प्रति काफी जोर-शोर से शोधरत हैं।

आज नीम का समतुल्य वृक्ष ढूंढ़ पाना कठिन है क्योंकि पीड़क नियंत्रक से लेकर मनुष्य के सर्वांग रोग, भूमि सुधार से लेकर प्रदूषण नियंत्रण तक में इसका प्रयोग किया जा रहा है। जीव-जंतुओं की विभिन्न विकृतियों, मनुष्यों में कैंसर और एड्स तक में नीम प्रभावी पाया गया है।

ग्रामीण अंचलों में चेचक को देवी मां का प्रकोप माना जाता है। देवी का स्थान या चौरा नीम की छाया में ही स्थापित होता है। चेचक होने पर रोगी के बिस्तर पर नीम की पत्तियां बिछाई जाती हैं और शरीर में खुजली होने पर – पत्तियों के गुच्छे से सहलाते हैं। – कहीं-कहीं नववर्ष पर हिंदू लोग नीम की पत्तियों को पानी में उबाल कर नहाते हैं और पत्तियों को खाते हैं। ऐसी धारणा है कि इस कृत्य से शरीर और मन शुद्ध हो जाते हैं और पूरे साल आदमी निरोग रहता है।

यहां उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि हर वर्ष रथयात्रा के अवसर पर प्रसिद्ध पुरी के जगन्नाथ मंदिर की भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की तीनों मूर्तियां नीम की मोटी भारी लकड़ी की ही बनाई जाती हैं। इस काम के लिए चयनित नीम के पेड़ की विधिवत् पूजा-अर्चना की जाती है, फिर इसे काटा जाता है और तब इससे मूर्तियां गढ़ी जाती हैं।

इस प्रकार, हम देखते हैं कि ‘नीम’ हमारी जिंदगी से किसी न किसी प्रकार अवश्य ही जुड़ा है। यह वह विलक्षण वृक्ष है जिसके प्रत्येक भाग से मिलने वाला पदार्थ या तत्व जीव-जंतुओं के लिए कल्याणकारी है। इसके गुणों के ही कारण इसे प्रत्येक स्थान पर लगाया जाता है। नीम के वृक्ष की उपयोगिता आर्थिक तथा पर्यावरण सुरक्षा दोनों दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है। आज के संदर्भ में हमें नीम की महत्ता को और समझने और उपयोग की सम्यक जानकारी की आवश्यकता है। इसके उत्पादों का युक्तियुक्त प्रयोग हमारा मुख्य ध्येय होना चाहिए। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए देश में नीम का बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण और संवर्धन अनिवार्य है। इस प्रकृति प्रदत्त कल्पतरु स्वरूप नीम का पूरा-पूरा लाभ हमारे देशवासियों को अवश्य ही उठाना चाहिए। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि यदि प्रत्येक घर में नीम के विभिन्न उत्पादों का सम्यक प्रयोग किया जाने लगे तो सभी लोग निरोगी एवं पूर्णतः स्वस्थ हो जाएंगे।

( औषधि के रूप में सेवन करने से पूर्व चिकित्सक से परामर्श अवश्य कर लें)

श्रोत:- विज्ञान प्रगति पत्रिका

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