शरीर है, तो रोग तो होंगे ही । आयुर्वेद में बताई गई जीवन शैली का पालन करें, तो रोग जकड़े गे ही नहीं और आप हर मौसम में स्वस्थ रहेंगे ।
आजकल चिकित्सा की कई पद्धतियां विकसित हो गई है । जरा सी स्वास्थ्य समस्या पर कई तरह के परिक्षण और विविध दवाएं उपलब्ध हैं । लेकिन आयुर्वेद के अनुसार हर रोग के लिए दवा की आवश्यकता नहीं होती हे । मात्र कुछ सामान से सिद्धांतों का प्रयोग व दिनचर्या में परिवर्तन कर हम रोग मुक्त हो सकते हैं । साथ ही नए रोग नहीं आए, ऐसी स्थिति बना सकते हैं । आज की जीवनशैली भी कुछ विचित्र हो गई है, जो बैठे बिठाए कई रोगों को आमंत्रित करती है । अगर इन सब से बचे रहना है, तो रोग मुक्त रहने के कुछ सामान्य नियम तो मानने ही होंगे:
स्वस्थ रहने के नियम
* सूर्योदय से पूर्व उठने का नियम बना ले । कहते हैं कि इस समय सुषुम्ना नाड़ी जागृत होती है । जिसके कारण वातावरण में वह रही स्वच्छ वायु का अधिकतम लाभ शरीर को मिलता है और शरीर दिनभर फुर्तीला अनुभव करता है । प्रतिदिन व्यायाम का नियम भी जरूर पालन करें । इससे रक्त संचार शरीर में तेज होता है और शरीर स्वस्थ अनुभव करता है । व्यायाम के लिए योग से लेकर पश्चिमी सभ्यता के व्यायाम तक किए जा सकते हैं ।
* आयुर्वेद में ऋतु हरीतकी का सेवन कायाकल्प योग माना गया है । इसमें निर्धारित अनुपान के साथ हरिती की (हरड़) का सेवन किया जाता है । ग्रीष्मा में गुड़ के साथ, वर्षा में सेंधा नमक के साथ, शरद ऋतु में शक्कर के साथ, हेमंत में सोंठ के साथ, शिशिर में पिप्पली के साथ, वसंत ऋतु में मधु के साथ लेते हैं । सामान्यतः मात्रा आधा चम्मच होती है ।
* प्रतिदिन चार या पांच तुलसी के पत्तों का सेवन जरूर करें ।
* भोजन के बाद नमक मिले पानी से कुल्ला करें । ताकि अन्न का भाग मुख नलिका में न रहे ।
* भोजन के बाद थोड़ी देर बाद विश्राम अवश्य करलें ।
* सुबह उठते ही ठंडा पानी कम से कम 3 से 4 गिलास तक धीरे धीरे पियें इससे पेट साफ रहता है ।
* यदि पानी तांबे के पात्र में रखा होगा, तो अधिक लाभ करेगा, उससे दिनभर स्फूर्ति बनी रहेगी, पेट साफ रहेगा तथा अनेक रोग नहीं आएंगे । दिन भर में अधिकाधिक जल का सेवन करें ( कम से कम 3 लीटर जल 24 घंटे में ) ।
* धूप का सेवन अवश्य करें । पृथ्वी-तत्व के संपर्क में रहने का प्रयास करें ।
* सप्ताह में 1 दिन, एक समय आस्वाद व्रत का पालन करें । नमक कम से कम ले । नींबू मिश्रित जल लें इससे आपकी संकल्प शक्ति बढ़ेगी । संयम प्रखर होगा तथा पेट को विश्राम मिलेगा ।
* सुबह सुबह हरी दूब पर टहलना संभव हो तो नंगे पैरों टहलें । पैरों पर दूब के दबाव से तथा पृथ्वी-तत्व के संपर्क से कई रोगों की स्वतः चिकित्सा हो जाती है । प्रौढ़ावस्था का आरंभ 50 वर्ष के बाद माना जाता है । इसके बाद क्रमशः दिन में एक बार ही अन्न लें । बाकी समय दूध व फल पर रहे । चावल, नमक, घी, तेल, आलू से बनी चीजें, तली भुनी चीजें क्रमशः कम करते जाएं । आहार सात्विक और जितना हल्का-सुपाच्य हो , उतना ही श्रेष्ठ है ।
-अखंड ज्योति से