एक बार की बात है। एक गांव में गरीब किसान रामू रहता था। उसकी दो बेटियां थी। जब वह अपनी पहली पुत्री का विवाह कर रहा था, तो उसे कुछ बर्तनों की आवश्यकता पड़ी। उसने पास के एक साहूकार से किराए पर कुछ बर्तन ले लिए। विवाह के बाद उसने साहूकार के बर्तन वापस कर दिए, जिनके साथ किसान के छोटे-छोटे बर्तन भी चले गए। जब वह किसान अपने छोटे बर्तनों को लेने गया, तो साहूकार ने कहा, ‘नहीं, ये तो मेरे बर्तनों के छोटे बच्चे हैं।’ यह कहकर उसने किसान को धक्के मार कर अपने घर से बाहर निकाल दिया।
कुछ वर्षों के बाद रामू ने अपनी दूसरी पुत्री का विवाह किया और फिर से उसी साहूकार से बर्तन किराए पर लिए। साहूकार ने बर्तन देते समय सोचा, अच्छा मूर्ख मिला है, पिछली बार बर्तन दे गया था, इस बार सारा सामान दे जाएगा। कई दिन बीत गए, पर रामू साहूकार के पास बर्तन लौटाने नहीं गया। चिंतित साहूकार रामू के पास गया और बर्तनों के बारे में पूछा, तो किसान ने जवाब दिया, ‘आपके बर्तन तो मर गए।’ साहूकार चीख पड़ा, ‘बर्तन कभी नहीं मरते। मेरे बर्तन लौटाओ, नहीं तो राजा से तुम्हारी शिकायत करूंगा।’ रामू राजा के पास जाने को तैयार हो गया। दोनों ने अपनी-अपनी बात राजा के सामने रखी। घंटों विचार-विमर्श और छानबीन के बाद राजा ने अगले दिन आने को कहा।
अगले दिन दोनों राजा के पास पहुंचे, तो राजा ने निर्णय सुनाया, ‘जिस प्रकार बर्तन बच्चे दे सकता है। ठीक उसी तरह बर्तन मर भी सकता है।’ यह कहकर राजा अपने कक्ष में चले गए। साहूकार को अपनी करनी का फल भुगतना पड़ा और उसने जैसा कर्म किया था, उसी का परिणाम उसे मिला कि उसके बर्तन रामू के पास रह गए।