दृष्टांत कथा: हतप्रभ हुए हनुमान

भगवान सर्वत्र व्याप्त है। यदि भावना निःस्वार्थ हो, तो प्रभु स्वयं ही भक्त के हो जाते है। ऐसा ही प्रसंग है रामायण का। जब भक्त प्रवर हनुमान संजीवनी बूटी लाने पर्वत गए थे। पर्वत की परिक्रमा पूरी करने के बाद भगवान हनुमान ने जैसे ही शीश झुकाया, उन पर आकाश से दिव्य सुगंधित पुष्पों की वर्षा होने लगी और दिव्य वाद्यों की कर्णप्रिय ध्वनि चरों ओर गूंजने लगी। उन्हें एक ममतामयी मधुर वाणी सुनाई पड़ी,’वत्स हनुमान, तुम्हारी जय हो। तुम्हारे कार्य सदा सुसम्पन्न होगें।’

हनुमान जी ने सिर उठाकर देखा तो माता सीता अंतरिक्ष में खड़ी मुस्करा रहीं थी। उनका दाहिना हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में था। वह आश्चर्य चकित होकर सोचने लगे की जब माता दुष्ट रावण की अशोक वाटिका में थी, फिर वह यहां कैसे है? पर सीता जी वहां से तत्काल अंतर्ध्यान हो गयीं ओर उनकी जगह भगवान श्रीराम प्रकट हुए। अब तो हनुमान जी और अधिक चौक गए। हनुमान जी कुछ पूछते, तभी श्रीराम अंतर्ध्यान हो गए और उनके स्थान पर लक्ष्मण प्रकट हो गए। आश्चर्य के कारण हनुमान जी की आखें बंद हो गयीं। उनके मन में आया कि जिन लक्ष्मण के लिए वह संजीवनी लेने आये है, वह तो पूरी तरह स्वस्थ्य है। फिर कुछ क्षणों के बाद जब हनुमान जी ने अपनी आखें खोली, तो भगवान शंकर को वहां खड़ा पाया। तब पवनसुत के हाथ स्वतः जुड़ गए और उन्होंने श्रद्धापूर्वक शीश झुकाकर अर्धनारीश्वर को प्रणाम किया।

भगवान शंकर उनकी परेशानी को समझ गए और मुस्कराते हुए बोले,’पवनसुत आश्चर्यचकित क्यों हो रहे हो? सर्वेश्वर प्रभु श्रीराम की लीला विचित्र है। उसे देखकर अज्ञानी ही मोहित होते है, तुम तो ज्ञानिनामाग्रगण्यं बुद्धिमतांवरिष्ठ’ हो। अपने मूलस्वरूप को याद करो। जो में हूँ, वही तुम हो और जो तुम हो, वही में हूँ। मुझमें और तुममें अंतर् नहीं है। तनिक सोचो, संपूर्ण सृष्टि की उदभव-स्तिथि-संहारिणी जगज्जननी आदि शक्ति सीता माता को कौन दुष्ट छू सकता है। और फिर लक्ष्मण किसी राक्षस के प्रहार से मूर्छित हो सकते है भला। यह सब प्रभु श्री राम की लीला है और उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम की भूमिका का निर्वाह करते हुए संसार में मानव जीवन का आदर्श स्थापित करना है। इसके बाद हनुमान को देवी पार्वती के भी दर्शन हुए। अब हनुमान जी प्रभु की लीला के सामने नतमस्तक हो गए।

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