नैतिक कहानी: घर की रोटी

chule ki roti

‘देवदास बने बैठे हो।’ साथी ने धौंस जमाते हुए पूछ। उसने आंखें ऊपर उठाई डबडबाई आंखें देखकर धौंस जमाने वाला सकते में आ गया। उसने तुरंत पूछा, ‘क्या हुआ?’ ‘कुछ नहीं यार! इसी गाड़ी से उतरा हूँ। उतरते-उतरते रोटियों की यह पोटली उठा लाया हूँ।’

‘रोटियों की पोटली?’ कहकहा लगाना चाहता था, वह, पर स्थिति भांपते हुए यह कहते-कहते रुक गया कि पॉकेट मारी छोड़कर भिखारियों वाला धंधा कब से अपना लिया? अपना दर्द उलीचते हुए वह बोला, ‘सालों बीत गए, मां के हाथ की बनी भीनी-भीनी सुगंध वाली रोटियां खाए।’ इस पोटली से निकलती रोटियों की सुगंध को नहीं सह पाया और चुरा लाया हूँ।

यह सुनकर उसके साथी का चेहरा तुरंत उतर गया। वह रुंधे स्वर में बोला, ‘अकेले मत खा लेना। मुझे भी देना।’ ‘एक ही खाई है, देखो।’ उसने पोटली खोली। नरम-नरम मुलायम सी रोटियां थी, साथ में आम का अचार। साथी ने ललचाई नजरों से हाथ बढ़ाया। उसने उसके हाथ को बीच में ही रोक लिया। ‘अभी नहीं।’ साथी ने प्रश्न भरी नजरों से देखा।

वह आगे बोला, ‘रोटी खाते हुए मेरी नजर उस डब्बे में चली गई। उधर देखो, तीसरे डब्बे में दूसरी खिड़की के पास जो अधेड़ औरत बैठी है और टकटकी लगाए पकौड़े वाले को देख रही है, उसी की रोटियां है। मुझे लगा कि मेरी मां भूखी है।’ ‘फिर, क्या रोटी लौटा दें। ‘मां के हाथ की बानी रोटियों के स्वाद का मोह नहीं छोड़ा जा रहा। इसका हल मैंने ढूंढ लिया है।’

‘क्या?’ ‘जैसे ही गाड़ी रेंगना शुरू करेगी, पकौड़े वाला गरमा-गरम पकौड़े और डबलरोटी उसे पकड़ा देगा और कहेगा, ‘सामने जो हाथ हिला रहा है, उसने भेजी है, शायद आपका कोई रिश्तेदार है।’ उसे मां समझते हुए विदा देने के लिए हाथ हिला दूंगा। फिर हम दोनों अपनी-अपनी मां को याद करते हुए रोटी खाएंगे।’ ‘अच्छा हाथ में हिला दूंगा।’ कहते हुए दोनों रो पड़े।

Related posts

Leave a Comment