नैतिक कहानी: दशहरे का मेला

नैतिक कहानी: दशहरे का मेला

दशहरे का मेला

मुहल्ले के बच्चों के साथ माला भी दशहरे का मेला देखने गई। मेले में तरह-तरह के झूले व् सर्कस लगे थे। खिलौनों की दुकाने सजी हुई थी। रंग बिरंगे गुब्बारे तथा तरह-तरह की मिठाइयों से सजी दुकानें उसे बहुत अच्छी लगीं। वह चाट खाने के लिए ठेले के पास खड़ी हुई, तभी एक चोर उसका पर्स ले भागा।

वह चाट भी नहीं खा पाई। सारे बच्चे जो उसके साथ गए थे, उसका साथ छोड़कर चल दिए। वे मिठाइयों, आइसक्रीम और समोसे का लुफ्त उठा रहे थे। अर्चना और लक्ष्मी तो झूले का आनंद ले रही थीं। जब्कि सजक गुब्बारे खरीद रहा था। माला धनी परिवार की थी। जिन बच्चों को वह कई बार पैसों का सहयोग करती थी, वह आज भी उसे नहीं पूछ रहे थे। उसके पास तो रिक्शे का किराया भी नहीं था। अब वह घर कैसे जाएगी ? यह सोचकर वह रोने लगी। तभी उसे पड़ोस के संजय अंकल और शालू आंटी ने देखा। उन्होंने उसे रोता देखा, तो उससे रोने का कारण पूछा। माला ने सारी कहानी उन्हें सुनाई। शालू आंटी ने कहा, ‘नहीं बेटा, रोते नहीं। चलो तुम्हें क्या-क्या खाना है ? फिर उन्होंने माला को सारा मेला दिखाया।

चरखी और झूले पर भी बिठाया। माला ने समोसे और मिठाईंयां भी खाई। उसे एक प्यारा सा खिलौना भी खरीद कर दिया। फिर उसे रिक्शे पर बिठाकर घर पहुंचा गए। माला घर पहुंचकर खुश होने के बजाय दुखी हो गई। दरअसल उसके दुःख का कारण यह था कि जिन अंकल-आंटी का वह और उसके दोस्त निःसंतान होने के कारण हमेशा मजाक उड़ाया करते थे, आज वही उसकी मुसीबत में काम आ गये। माला को यह बात भी समझ में आ गयी कि अकारण किसी का उपहास नहीं करना चाहिए। दोस्त या अपने वह होते है,जो हमेशा मुसीबत में काम आते है।

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